कुमाऊं की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी का स्वाधीनता आंदोलन में योगदान राष्ट्रीय फलक पर चर्चा में आ गया है।
राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने उत्तराखंड प्रवास को पूरा करने के बाद ट्वीट कर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बागेश्वर की मूल निवासी बिशनी देवी साह के स्वतंत्रता आंदोलन में दिए गए योगदान को याद किया।
राष्ट्रपति ने कहा बिशन साह ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अल्मोड़ा नगरपालिका भवन पर तिरंगा लहराया और गिरफ्तार की गई। वह साधारण परिवार की अल्पशिक्षित महिला थी लेकिन भारत के स्वाधीनता संग्राम को उनके द्वारा दिया गया योगदान असाधारण है।
बिशनी साह कुमाऊं की पहली महिला स्वतंत्रता सेना
- कुमाऊं विवि की इतिहास विभागाध्यक्ष प्रो सावित्री कैंडा जंतवाल ने कुमाऊं में स्वतंत्रता संग्राम में महिला आंदोलनकारियों के योगदान पर गहन शोध किया है।
- उन्हें इसके लिए डि लिट की उपाधि भी मिली।
- प्रो साह के शोध ग्रंथ के अनुसार बिशनी साह कुमाऊं की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं।
- उनका जन्म बागेश्वर के तल्ली बाजार में 12 अक्टूबर को जगाती परिवार में हुआ था।
- 16 साल की आयु में उनका विववाह अल्मोड़ा निवासी अध्यापक रामलाल के साथ हुआ।
- उस दौर में बागेश्वर में शिक्षा संबंधी सुविधाएं नहीं होने की वजह से उन्होंने बागेश्वर में ही जैसे तैसे चार तक की शिक्षा ग्रहण की।
- तब राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव भी नन्हीं बालिका पर पड़ गया था।
- सिर से पति का साया उठने के कारण वह अपने भाई कुंदन लाल साह के साथ अल्मोड़ा में रहने लगी।
- बिशनी देवी के मायके वाले आंदोलन के दौरान कांग्रेसी थे। उनका प्रभाव उन पर पड़ा था।
- 1921 में उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेना शुरू किया था।
- उन्होंने पर्दा प्रथा की परवाह ना करते हुए आंदोलन में कूद पड़ी।
- वह स्थानीय लोक पर्वों पर राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित गीत गाने लगीं।
- 1930 में पहली बार उनको गिरफ्तार किया गया।
- जेल के भीतर लोहे के बड़े दरबाजे, खिड़कियों की मोटी सलाखों और ऊंची दीवारों को देख उनकी स्थिति विचित्र हो गयी। वह कहने लगी… जेल ना समझे बिरादर जेल जाने के लिए, यह कृष्ण मंदिर है प्रसाद पाने के लिए।
- अल्मोड़ा जेल से रिहाई के बाद वह गांव-गांव महिलाओं को संगठित करने लगी।
घर-घर जाकर महिलाओं को चरखा चलाना सिखाया
बिशनी साह जेल जाते समय आंदोलनकारियों पर पुष्प वर्षा, तिलक लगाकर उन्हें विदाई देती और सत्याग्रहियों की गैर मौजूदगी में उनके घर परिवार की सहायता करने लगीं।
तब मोती लाल अग्रवाल की खादी की दुकान से खादी के वस्त्रों को लाकर उन्होंने घर-घर जाकर महिलाओं को चरखा चलाना सिखाया। तब चरखा का मूल्य दस रुपये था, लेकिन बिशनी देवी के प्रयासों से महिलाओं चरखा पांच रुपये में मिलने लगा, इससे महिलाओं में उत्साह बढ़ गया।
गोपनीय तौर पर पत्रवाहक का काम भी करती थीं
बिशनी देवी इस दौरान गोपनीय तौर पर पत्रवाहक का काम भी करती थीं। उनकी इन गतिविधियों को देखकर तत्कालीन समाचार पत्रों में लिखा कि समस्त उत्तर प्रदेश में अल्मोड़ा व नैनीताल आगे आए हैं। विशेषकर अल्मोड़ा में कांग्रेस कार्यकर्ता बिशनी की भूमिका बड़ी है।
आंदोलनकारियों के लिए करती थीं धन संग्रह
दो जनवरी 1931 को जब बागेश्वर में महिलाओं का जुलूस निकला तो बिशनी देवी ने उत्साहित करने के साथ ही उन्हें अंग्रेजी सरकार के सामने आने की शाबासी दी।
इन्हीं दिनों स्वराज मंडल सेरा दुर्ग बागेश्वर में आधी नाली जमीन व 50 रुपये दिए। वह आंदोलनकारियों के लिए धन संग्रह करतीं, गुप्त रूप से आवश्यक सामग्री मुहैया करातीं, आश्रय स्थल का इंतजाम करती थीं।
1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। दो मई 1932 तक फतेहगढ़ जेल में रही, दो माह की सजा पूरी करने के बाद 12 मई 1932 को रिहा किया गया।
सात जुलाई 1932 को फिर गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल रखा गया। 23 जुलाई को फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। 21 मई 1933 को अल्मोड़ा जेल वापस लाया गया। नौ माइ ही सजाा व दो सौ रुपया जुर्माना तथा कुछ दिनों की सजा और बढ़ा दी गई। बार बार गिरफ्तारी के बाद साहस में कमी नहीं आई।
29 मई 1933 को उन्हें रिहा कर दिया गया। उन्हें रानीखेत में बिशनी देवी को जिला कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया गया। दस जनवरी 15 जनवरी 1935 तक प्रदर्शन के लिए उन्हें कांग्रेस सभापति मोहन सिंह समेत अन्य की ओर से खादी भंडार से प्रथम श्रेणी प्रमाण पत्र दिया गया।
व्यक्तिगत सत्याग्रह में बिशनी देवी ने खुलकर भाग लिया
12 जनवरी 1938 को अल्मोड़ा में बिशनी देवी समेत अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सरकार विरोधी नारे लगाए और गरुड़ पहुंच गए। 26 जनवरी 1940 को अल्मोड़ा में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। जिसमें प्रात: दस बजे नंदा देवी प्रांगण में बिशनी देवी ने झंडारोहण किया।
1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में बिशनी देवी ने खुलकर भाग लिया। शराब की दुकानों पर धरना दिया और विदेशी वस्तुओं की होली जलाई। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बिशनी देवी ने अपनी अहम भूमिका से ब्रिटिश सरकार को आश्चर्य में डाल दिया कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं।
1945 में जब जवाहर लाल नेहरु व अन्य जब कारागार अल्मोड़ा से रिहा हुए तो वह उनको लेने के लिए कारागार के मुख्य द्वार पर गई और सरकारी अफसरों पर कटाक्ष किया। 15 अगस्त 1947 की शाम तीन बजे नंदा देवी अल्मोड़ा प्रांगण में बिशनी देवी के नेतृत्व में हजारों लोगों का जुलूस निकला और वह राष्ट्रीय ध्वज को पकड़े नारे लगा रही थीं।
कुमाऊं में महिला समाज में राजनीतिक चेतना, महिलाओं के संगठित करने, सामाजिक सांस्कृतिक अधिकारों के प्रति प्रेरित करने का श्रेय बिशनी देवी को जाता है। प्यार से लोग उनहें बिशू बूबू कहते और इसी नाम से उन्हें इसी नाम से अधिक परिचित थे। 1974 में 93 साल की आयु में उनका देहांत हो गया। शव यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए थे।